जान हथेली पर रख पार करनी पड़ती थी ब्यास, अंग्रेजों के आने से पहले ‘मूसक’ था इकलौता सहारा

जान हथेली पर रख पार करनी पड़ती थी ब्यास, अंग्रेजों के आने से पहले ‘मूसक’ था इकलौता सहारा
जान हथेली पर रख पार करनी पड़ती थी ब्यास, अंग्रेजों के आने से पहले ‘मूसक’ था इकलौता सहारा
विनोद भावुक/ कुल्लू
हिमाचल प्रदेश की ब्यास घाटी, विशेषकर कुल्लू और मंडी क्षेत्रों में, नदियों ने हमेशा जीवन और यात्रा दोनों में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। एक समय था जब ब्यास नदी को पार करने का एकमात्र तरीका जानवरों की फूली हुई खाल से बनी पारंपरिक नौका ‘मूसक’ हुआ करता था। साल 1846 के बाद, जब अंग्रेजों ने कुल्लू पर नियंत्रण स्थापित किया, तो उन्होंने बुनियादी ढांचे में कई सुधार किए और खासकर नदी पार करने के लिए सस्पेंशन ब्रिजों (झूला पुलों) का निर्माण करवाया। इस बदलाव ने न केवल स्थानीय जीवन को प्रभावित किया बल्कि क्षेत्रीय व्यापार, प्रशासन और संस्कृति में भी दूरगामी परिवर्तन लाए।
मूसक से शुरू हुई यह यात्रा आधुनिक पुलों तक पहुंची है। आज जब हम पक्के पुलों और सड़कों पर सफर करते हैं, तो शायद ही हम सोचते हैं कि कभी इन्हीं जगहों पर लोग फूली हुई खाल पर बैठकर अपनी जान हथेली पर रखकर यात्रा करते थे। अंग्रेजों के आने के बाद हुए पुल निर्माण ने पहाड़ी जीवन को जिस तरह बदला, वह परिवर्तन न सिर्फ भौगोलिक था, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भी। हिमाचल प्रदेश राजकीय अभिलेखागार, शिमला और 19वीं सदी के टी.सी. रॉबर्टसन सैम्यूल बोर्न्स जैसे यात्री लेखकों की डायरियां उस दौर को जिंदा रखे हुये हैं और इस बारे में अभी भी कई स्थानीय लोक कथाएं प्रचलन में हैं।
ज़रूरत में जोखिम भरा सफर
कुल्लू बाजौरा, नगवाईं, भुंतर और लारजी जैसे क्षेत्रों में रहने वाले लोग ब्यास के पार जाने के लिए मूसक का इस्तेमाल करते थे। यह मूसक बकरी या भेड़ की खाल को फुलाकर बनाई जाती थी और उस पर लकड़ी या बांस की छोटी संरचना बांध दी जाती थी, जिस पर बैठकर यात्री दरिया पार करते थे। यह तरीका प्राचीन तो था ही, अत्यंत जोखिम भरा भी था। तेज बहाव, अचानक बारिश या नदी का उफान, मूसक यात्रा को जानलेवा बना देता था। फिर भी, स्थानीय लोग इसे मजबूरी में अपनाते थे।
अंग्रेजों के साथ शुरू हुआ सस्पेंशन ब्रिज का सफर
प्रथम सिख युद्ध के बाद 1846 में अंग्रेजों ने जब कांगड़ा और फिर कुल्लू क्षेत्र का प्रशासन अपने हाथ में लिया, तो उन्होंने पहाड़ी इलाकों को प्रशासनिक और सामरिक दृष्टिकोण से बेहतर तरीके से जोड़ने का प्रयास किया। इसी क्रम में, उन्होंने ब्यास, पार्वती, और सतलुज जैसी प्रमुख नदियों पर स्थायी पुलों के निर्माण की योजना बनाई।
अंग्रेज इंजीनियरों ने इन दुर्गम क्षेत्रों में लोहे की रस्सियों और लकड़ी से बने सस्पेंशन ब्रिजों का निर्माण शुरू किया। ये पुल न केवल सुरक्षित थे, बल्कि मालवाहन, प्रशासनिक आवागमन और आम जनता की सुविधा के लिए भी अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुए।
पल बने यात्रा बदली, समाज बदला
भुंतर पुल भुंतर क्षेत्र में बने पहले पुलों में से एक था जो कुल्लू को मंडी और आगे बिलासपुर होते हुए शिमला से जोड़ने लगा। लारजी पुल पार्वती और ब्यास के संगम पर स्थित यह पुल दूर-दराज के गांवों को जोड़ने का महत्वपूर्ण केंद्र बना। बाजौरा और नगवाईं पुल स्थानीय व्यापार और मेलों में भाग लेने वालों के लिए बहुत राहत देने वाले सिद्ध हुए।
सस्पेंशन ब्रिजों के निर्माण से केवल यात्रा ही नहीं बदली, समाज भी बदला। पहले जो गांव एक-दूसरे से कटा हुआ महसूस करते थे, अब वे संपर्क में आए। पारिवारिक रिश्ते बढ़े, व्यापार में वृद्धि हुई, और शिक्षा एवं चिकित्सा जैसी सेवाएं लोगों की पहुंच में आईं। मेलों और धार्मिक आयोजनों में भागीदारी बढ़ी और क्षेत्र में सामाजिक समरसता को बल मिला।
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Jyoti maurya

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