लोक के राग-5 : पंजाबी रंगमंच को नया जीवन देने वाली अन्द्रेटा की ‘थिएटर दादी’ आयरलैंड की नोराह रिचर्ड्स


विनोद भावुक/ धर्मशाला

रोचक, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक कहानियों के प्लेटफॉर्म हिमाचल बिजनेस की ‘लोक के राग’ सीरीज की आज की कड़ी में प्रेरक कहानी नोराह रिचर्ड्स की, जिन्हें लोग प्यार से ‘पंजाबी नाटक की जननी’ और ‘थिएटर दादी’ कहकर याद करते हैं।

29 अक्टूबर 1876 को आयरलैंड के अर्माग प्रांत के गोरावुड में जन्मी नोराह, बचपन से ही अभिनय और रंगमंच की दुनिया में रमी हुई थीं। बेल्जियम, ऑक्सफोर्ड और सिडनी से पढ़ाई करने के बाद इंग्लैंड में ‘नोराह डॉयल’ नाम से थिएटर करती रहीं। यहां उनकी मुलाकात रंगकर्मी बी. इडन पाइन से हुई, जिनसे उन्हें महान लेखक टॉल्सटॉय को पढ़ने की प्रेरणा मिली।
टॉल्सटॉय के विचारों से प्रभावित होकर नोराह ने डोरसेट के ‘वुडलैंड्स’ गांव में सादा जीवन शुरू किया और यहीं उनकी जिंदगी में आए प्रो. फिलिप अर्नेस्ट रिचर्ड्स। 1908 में शादी हुई और 1911 में यह जोड़ी भारत आ गई।

लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज में प्रो. रिचर्ड्स अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाने लगे, जबकि नोराह ने छात्रों के लिए नाट्य लेखन और अभिनय का प्रशिक्षण केंद्र शुरू किया। यहीं से पंजाबी नाटक आंदोलन की नींव पड़ी।
छात्रों में जोश था, नोराह में जुनून। नतीजा यह कि आज भी थिएटर कलाकार उन्हें पंजाबी नाट्य कला की ‘बड़ी मां’ मानते हैं।

12 साल बाद पति का निधन हुआ तो नोराह इंग्लैंड लौट गईं, लेकिन दिल में भारत के लिए अटूट प्रेम था। एक बार लंदन में उन्होंने एक फिल्म में भारत की विकृत छवि देखी और गुस्से में शो-केस तोड़ डाला। गिरफ्तारी हुई, एक महीने की जेल भी काटी। जेल से निकलते ही उन्होंने ठान लिया, अब भारत ही मेरा घर है।

1927 में नोराह कांगड़ा घाटी के बनूरी गांव में बसीं और ‘सरस्वती समर स्कूल’ शुरू किया। बाद में 1935 में वे अन्द्रेटा आ गईं। यहां उन्होंने ग्रामीणों के लिए नाटक लिखे, मंचित किए और सामाजिक मुद्दों पर संवाद शुरू किया। उनकी रचनाओं में ‘सती’, ‘होमलैस’, ‘मदर अर्थ’, ‘द सन कम्स होम’ जैसे नाटक शामिल हैं।

नोराह के बुलावे पर विख्यात पेंटर सोभा सिंह, पॉटरी कलाकार गुरचरण सिंह और कई बड़े थिएटर व्यक्तित्व अन्द्रेटा में आकर बस गए। पृथ्वीराज कपूर को थिएटर की ओर आकर्षित करने में भी उनका योगदान रहा। धीरे-धीरे अन्द्रेटा कला, साहित्य और नाट्य का तीर्थ बन गया।

1960 में पंजाबी विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर ऑफ लिटरेचर की मानद उपाधि दी। 4 मार्च 1971 को 94 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी बनाई विरासत आज भी जीवित है।

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