राजा राजसिंह : अढ़ाई घड़ी खोपड़ी के बिना लड़ा राजा
शाहपुर के नेरटी गांव में चंबा के राजा राजसिंह का शहीदी स्थल, पूजनीय है ‘स्मृति शिला’
रमेश चंद मस्ताना / शाहपुर
कांगड़ा जिला के शाहपुर उपमंडल के रैत नामक कस्बे से एक संपर्क सडक़ नीचे की ओर सरकती हुई सलोल- लंज-नगरोटा सूरियां और महाराणा प्रताप सागर पौंग जलाशय तक जाती है। इसी सड़क पर नेरटी नामक ऐतिहासिक गांव स्थित है, जो अपने में कई अदभुत आश्चर्य एवं अतीत की विरासतों को संजोए हुए है।
साहित्य एवं कला के साथ शैक्षणिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विशेषताओं को समेटे शाहपुर विधानसभा का यह क्षेत्र चंबा के राजा राजसिंह की ऐतिहासिक गाथा को भी अपने आंचल में समेटे हुए है।
शिव लाहड़ था राजाओं का निवास
राजसिंह का जन्म 1764 में चंबा से सोलह किलोमीटर दूर रावी नदी के कि नारे पर बसे हुए ‘नड्ड’ नामक गांव में हुआ था। चंबा की रियायत से जुड़ा यह गांव चंबा के राज परिवारों एवं सेनाओं की स्थली भी रहा है।
रेहलू के किले के साथ नेरटी में भी एक गढ़ और कोठियों के अलावा आध्यात्मिक दृष्टि से मशहूर एक शिव लाहड़ भी था, जिसमें राजाओं का निवास, शासन व राजकाज तथा धर्म-आस्था से संबंधित कार्य होते थे।
तलवार कौशल प्रसिद्ध था राजा राजसिंह
इन कोठियों में माल गुजारी की जाती थी और फिर वहां से उसे रेहलू के किले अथवा चंबा तक पहुंचाया जाता था। राजा राजसिंह का तलवार कौशल प्रसिद्ध था, वहां उनकी देवी माता ‘घोरका’ की प्रतिमा के प्रति अपार आस्था थी।
यह माना जाता था कि जिसके पास माता घोरका की प्रतिमा होगी, उस राजा को कोई भी पराजित नहीं कर सकता था।
कांगड़ा-नरेश संसार चंद की थी नजर
कांगड़ा-नरेश संसार चंद इसी देवी की प्रतिमा को और रेहलू तथा नेरटी के हार को अपने अधीन करने की मंशा रखने लगा था। सन 1786 में जैसे ही उसने कांगड़ा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया तो वह बहुत ही अधिक महत्वाकांक्षी हो गया तथा उसने साथ लगती ग्यारह पहाड़ी रियासतों पर अधिकार जमाने की मंशा प्रकट करनी शुरू कर दी।
उसने राजा राजसिंह को भी रेहलू के इलाके को छोड़ने के लिए कहा, परन्तु राजा ने साफ मना कर दिया।
चंबा की सेना पर कांगड़ा सेना का आक्रमण
राजा संसार चंद की इस मंशा से राजा राजसिंह को अंदेशा हो गया कि यह कभी भी आक्रमण कर सकता है, इसलिए उसने अन्दर ही अन्दर तैयारी शुरू कर दी और रेहलू के किले की मरम्मत करके सेना को इकट्ठा करना प्रारंभ कर दिया।
राजा संसार चन्द को जैसे ही इस बात का पता चला, उसने अपनी सेना के माध्यम से गुप्त रूप में चंबा की सेना पर आक्रमण करवा दिया।
आक्रमण से समय पूजा कर रहा था राजा
जिस समय आक्रमण हुआ, उस समय राजा राजसिंह पूजा में बैठा हुआ था। राजा राजसिंह ने नूरपुर की सेना की मदद ली थी, परन्तु वह सेना भारी शत्रु सेना को देखकर भयभीत हो गई और हड़बड़ी की हालत में भाग खड़ी हुई।
राजा राजसिंह को भी उन्होंने भाग जाने की सलाह दी, परन्तु राजा ने शौर्य के साथ लड़ना उचित समझा और अपनी नाममात्र की सेना के साथ शत्रु सेना से भिड़ गया।
धोखे से हुआ राजा पर हमला
यद्यपि राजा संसार चन्द की ओर से राजा राजसिंह को केवल बन्दी बनाने का ही हुक्म था, परन्तु सैनिकों ने गढ़ के भीतर पूजा में बैठे हुए राजा राजसिंह पर धोखे से वार किया।
आषाढ़ प्रविष्टे सात सन 1794 तद्नुसार विक्रमी संवत 1850 में हुए इस छद्म युद्ध में राजा राजसिंह पर शत्रु सेना के सैनिक जीत सिंह पूर्विया, जिसका नाम अमर सिंह हजूरी भी मिलता है, ने पीठ पीछे से तलवार का वार किया।
राजा के एक दम सचेत होने व माता का आशीर्वाद होने से केवल खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा ही उड़ गया और नाममात्र की सेना के शहीद होने पर भी अकेले ही शत्रु सेना पर टूट पड़े।
वार से उड़ गया खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा
खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा भले ही उड़ गया पर फिर भी राजा राजसिंह अढाई घड़ी अर्थात एक घंटे तक तक शरीर के घावों के बावजूद दुश्मन सैनिकों से मुकाबला करते हुए इसी देहरा नामक स्थान तक पहुंच गए थे।
वहां पर किसी के द्वारा यह कहने पर कि देखो-देखो, राजा बिना खोपड़ी के ही लड़ रहा है, ऐसी बातें सुनते ही राजा ने अपने सिर पर ज्यों ही हाथ रखा तो उसे खून से लथपथ पाया और वहीं एक शिला पर हाथ मारकर मूर्छित होकर शहीद हो गया।
शत्रु सैनिक राजा की खोपड़ी के ऊपरी हिस्से को लेकर भाग खड़े हुए। मगढ़ैणों के कुआल़ से उतर कर चंबी खड्ड पार करके राजोल-डोला होते हुए गज दरिया पारकर घाटी नामक स्थान तक पहुंच गए।
राजा राजसिंह की सेना ने भी नेरटी पहुंचने के बाद उनका पीछा किया और राजा की खोपड़ी के उस हिस्से को छुड़ा कर लाए थे।
‘स्मृति शिला’ एवं ‘राजे का देहरा’
कहा जाता है कि इस युद्ध में नेरटी के लियोनि दास और राजा के दरबारी भट्ट सूहड़ी निवासी ने भी अपनी अदभुत वीरता एवं अदम्य साहस का परिचय दिया था। राजा राजसिंह का अन्तिम संस्कार रेहलू में खौहली खड्ड के किनारे किया गया था, जिसमें उनकी रानी और चार वादियां सती हुईं थीं।
राजा राजसिंह के खून से लथपथ पंजे का वह निशान आज भी उस शिला पर अंकित है और वही शिला ‘स्मृति शिला’ एवं ‘राजे का देहरा’ के रूप में पूजनीय है।
राजा के इस शहीदी स्थल का प्राचीन नाम ‘धरपल़ी’ बताया जाता है। इस युद्ध के बाद कहा जाता है कि राजा संसार चन्द को काफी पछतावा भी हुआ, क्योंकि उसने तो केवल राजा को युद्धबन्दी बनाने के आदेश दिए थे।
चालीस साल ही जिया कला संरक्षक राजा
राजा राजसिंह की मृत्यु मात्र चालीस वर्ष की अवस्था में हो गई थी, फिर भी वह एक ऐतिहासिक वीर पुरुष सिद्ध होने के साथ-साथ एक कला-प्रेमी एवं संरक्षक के रूप में भी जाने जाते रहे हैं।
चंबा की लोक चित्रकला एवं चंबा रुमाल आदि के संरक्षण एवं विकास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका बताई जाती है।
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