रिसर्च : इंडो-मंगोलियन हैं मलाणा के निवासी
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दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के बारे में छेरिंग दोरजे का शोध
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सिकंदर के सैनिकों के वशंज नहीं हैं पार्वती घाटी के मलाणा के लोग
हिमाचल बिजनेस/ मलाणा
पार्वती घाटी के भीतरी हिस्से में दुर्गम घाटियों से घिरा मलाणा किसी परिचय का मोहताज नहीं है। मलाणा को आज अधिकतर लोग चरस की खेती के लिए जानते हैं। हर वर्ष यहां देसी – विदेशी पर्यटक बड़ी तादात में उत्सुकतावश घूमने आते हैं। वे हशीश घाटी के रूप में मशहूर हो चुकी इस घाटी का अनुभव अपनी आंखों से करना चाहते हैं।
वैसे तो पर्यटन मानचित्र पर मलाणा को विश्व के प्राचीनतम लोकतंत्र के रूप में उकेरने के प्रयास किए गए, लेकिन इसके विपरीत यह चरस के लिए ज्यादा बदनाम हुआ है।
चरस के आवरण में खोई मलाणा की संस्कृति
इस घाटी के परिवेश पर देसी-विदेशी लोगों ने बहुत सी डॉक्यूमेंट्री बनाई और इसके बारे में विभिन्न जगहों पर लेख भी लिखे गए, परंतु विडंबना रही कि सभी लघु वृतचित्रों और लेखों का केंद्रबिंदु प्राचीनतम लोकतंत्र न होकर चरस ही रहा। इस हशीश कल्चर को दुनिया के सामने लाने में साल 2011 में अलमान दत्ता की बनाई गई डॉक्युमेंट्री ‘बोम’ का भी काफी योगदान रहा।
मलाणा जाने वाले पर्यटक यहां के संस्कृतिक दृश्यवलोकन की उत्सुकता के विपरीत हशीश कल्चर को देखने और उच्च क्वालिटी की चरस का आनंद लेने जाते हैं। आज कुल्लू की यह अमूल्य प्रागैतिहासिक संस्कृति चरस के आवरण में कहीं खो गई है।
मलाणा वासियों पर शोध का सच
आज भी कुछ लोग हैं जो इस घाटी के इस प्रागैतिहासिक जनजातीय परिवेश पर शोध कार्य करके इस संस्कृति की वास्तविक उत्पत्ति का पता लगाने में जी-जान से जुटे हैं।
इस घाटी के जनजातीय इतिहास का शोध करने वालों में एक प्रमुख और सबसे तार्किक शोध करने व्यक्ति थे लाहौल स्पीति के सुविख्यात इतिहासकार छेरिंग दोरजे।
उन्होंने हिमालय की विभिन्न जनजातियों के रहन-सहन, रीति-रिवाज और बोलियों पर तुलनात्मक अध्ययन करके मलाणा के बारे में सटीक जानकारियां जुटाई।
उनके अनुसार मलाणावासियों का संबंध सिकंदर के सैनिकों से न होकर मंगोल जाति से होने के अधिक प्रमाण मिलते हैं।
चेहरे की बनावट और बोली
अपनी अनोखी संस्कृति के लिए मशहूर मलाणा में रहने वाले जनजातीय समुदाय के लोगों के विषय मे पूर्व में कई साहित्यकारों ने शोध किए हैं।अधिकतर शोध में साहित्यकारों ने मलाणा वासियों का संबंध अलैग्जेंडर के सैनिकों से संबंधित बताया है। स्वयं मलाणा के लोग भी यहीं मानते आए हैं कि मलाणा वासियों के पूर्वज सिकंदर की सेना की एक टुकड़ी से बिछड़े हुए सैनिक थे।
इतिहासकारों ने मलाणा वासियों के चेहरे की बनावट और उनकी अनोखी कनाशी बोली के आधार पर यह अनुमान लगाया है।
इसलिए पैदा होता है शक
भौगोलिक संदर्भों के अनुसार सिकंदर और पोरस के युद्ध के आधार पर भी इन अनुमानों को समय-समय पर और अधिक बढ़ावा दिया गया है, परंतु सभी इतिहासकारों ने यह सब एक अनुमान के आधार पर ही कहा है।
यहां एक बात इस तथ्य पर संशय उत्पन्न करती है कि सिकंदर 326 ईसा पूर्व भारत आया था। यदि उसके बाद भी कोई सैनिक टुकड़ी बिछड़ी होगी तो उनका मलाणा पहुंचने का काल 326 ईसा पूर्व के आसपास ही रहा होगा, परंतु मलाणा की संस्कृति प्रागैतिहासिक मानी जाती है।
महाभारतकालीन है कुल्लूत देश
विभिन्न आधुनिक शोध कार्यों के अनुसार मलाणा प्राचीन कुल्लूत देश (वर्तमान कुल्लू) के अंतर्गत आता है।
कुल्लूत देश के संदर्भ में भी देखें तो कुल्लूत का जिक्र महाभारत काल तक में मिलता है, जिसमें उस समय यहां के राजा ‘क्षेमधूर्ति’ ने महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से भाग लिया था। पांडवों का वर्णन हिडिंबा के साथ भी यहां के कई उपायानों में मिल जाता है।
सिकंदर की सेना के वंशज होने के प्रमाण नहीं
प्राचीन कुल्लूत साम्राज्य का वर्णन भारतीय ग्रंथों में किसी न किसी रूप में मिलता है। इन ग्रंथों में महाभारत, पाणिनि रचित अष्टाध्यायी, मुद्राराक्षस, कादंबरी प्रमुख हैं। अत: इन पौराणिक उल्लेखों के अनुरूप सिकंदर का काल और मलाणा की संस्कृति का प्रगैतिहासिक होना संशय की स्थिति उत्पन्न करते हैं।
साथ ही, मलाणा वासियों के सिकंदर की सेना के वंशज होने के किसी के पास कोई तथ्यात्मक प्रमाण भी नहीं हैं।
छेरिंग दोरजे का मलाणा पर अध्ययन
इस विषय पर अक्टूबर 2013 में हिमप्रस्थ पत्रिका के अंक में छेरिंग दोरजे के दो लेख छपे थे। पहला ‘मलाणा, प्रागैतिहासिक जनजातीय संस्कृति का एक बिंदु द्वीप’ और दूसरा ‘मलाणा का अधिष्ठाता देऊ जमलू और प्राचीन ग्राम स्वराज प्रणाली’।
दोनो लेखों में ऐसे बहुत से उदाहरण और तुलनात्मक विवरण दिए गए हैं जिनसे मलाणा के वास्तविक इतिहास को जानने का अवसर प्राप्त होता है।
किन्नर-किरात और मलाणा वासी
छेरिंग दोरजे कुल्लूत के विषय मे अपने लेख में कहते हैं, ‘एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार कुल्लू राज्य के आदि संस्थापक भोट वंशज (तिब्बती) ‘मकर’ था, जिसके नाम पर कुल्लू की प्रथम राजधानी का नाम मकरहा अथवा मकड़सा पड़ा।
दुर्गम तथा दूरस्थ संकरी घाटी मलाणा के भीतरी भाग में बसे लोग कुल्लूत जनपद के आदिम निवासी मलाणा जनजाति समुदाय एक विचित्र तथा अछूते सांस्कृतिक द्वीप को प्रस्तुत करते हैं।’
वे लिखते हैं कि कुल्लूत राज्य के निवासी किन्नर-किरात जनजाति समुदाय से थे। किरात समुदाय भारतीय-मंगोल जाति से संबंधित थे। इनकी भाषा किरांती तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार से संबंधित है।
महाभारत और रामायण में उल्लेख
इतिहासकार डॉ. सुनीती कुमार चटर्जी के अनुसार भी यह लोग भारतीय-मंगोल जाति समुदाय किरात जनजाति के अतिरिक्त अन्य नहीं हो सकते। इनके बारे में संस्कृति और भोटी साहित्य में बारंबार उल्लेख हुआ है।
यजुर्वेद में उल्लेख है कि किरात स्त्रियां पहाड़ों में औषध जड़ी-बूटियां खोदती हैं। पहाड़ों की ढलानों पर खुरपी के साथ खोदती हैं। जिस पर सोने का काम किया होता है।
इसी प्रकार पहाड़ी किरातों के बारे में प्राग्ज्योतिष (कामरूप) के राजा भगदत्त का किराती सेनाओं से कौरवों के पक्ष में युद्ध करने और हारने का वर्णन भी मिलता है। रामायण में भी किरातों का वर्णन मिलता है।
कणाशी बोली का तिब्बत से संबंध
मलाणा में बोली जाने वाली बोली को कणाशी कहते हैं। इस बोली पर छेरिंग दोरजे ने व्यापक अध्ययन किया और उन्हें इसका संबंध तिब्बत के प्रथम धर्म बोन-पो की बोली जङ्-जुङ् से मिला।
अध्ययन करने पर स्पष्ट हुआ कि मलाणा की कणाशी बोली जङ्-जुङ् की तिब्बतीवर्मी भाषा के परिवार की ही उपबोली है। वे मानते हैं कि यही बोली मलाणा वासियों को किराती समुदाय से जोड़ने का सशक्त आधार है।
हिमालय की बोलियों में प्रभाव
दोरजे के अनुसार हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों में बसने वाले जनजातीय समुदायों में बोली जाने वाली कई बोलियां जङ्-जुङ् और किन्नर-किराती बोली की सम वाणियां हैं।
इन प्राचीन बोलियों को बोलने वाले लोग भारत के उत्तर-पूर्वी अरुणाचल प्रदेश से लेकर सिक्किम, नेपाल, उत्तराखंड, हिमाचल, चितराल और बाल्टिस्तान तक फैले हुए हैं।
इस बोली को बोलने वाली अधिकतर जनजातियां दुर्गम हिमालय के दुर्गम, उच्च और विलग क्षेत्रों में पाई जाती हैं। लाहौल की बोली पुनन कद (लाहुली जनजातीय बोली) भी इसी भाषाई परिवार की उपबोली है।
तिब्बती बोन धर्म में वृतांत
छेरिंग दोरजे ने लिखा है कि तिब्बती बोन धर्म के विशाल साहित्य में जङ्-जुङ् राज्य, जङ्-जुङ् जनजातीय समुदाय और जङ्-जुङ् भाषा के वृतांत किए गए हैं।
यह प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वर्णित किन्नर किरात जनजाति और उनकी भाषा किरांती को इंगित करते हैं, क्योंकि इन भाषाओं में समरूपता है।
मलाणा के बारे में भ्रांतियां
प्राचीन मलाणा संस्कृति के बारे सर्वसाधारण में मिथ्या विचार और अनेक भ्रांतियां फैलाई गई हैं। इनकी भाषा कणाशी को राक्षस भाषा, देऊ जमलू को जमदग्नि ऋषि, स्वत:शासी स्वराजप्रणाली को संसार की इस प्रकार की एकमात्र शासन प्रणाली आदि कहा गया है, जबकि कुल्लू में कणाशी को देव वाणी कहा जाता है।
जब गुर देव संदेश साधारण जन को सुनाता है तो उसे देव कणाश भाषा में बोला कहते हैं। जैसा पहले वर्णन किया है कि मलाणावासी किरात जनजाति से सबंध रखते हैं और प्राकृतिक शक्तियों के पुजारी हैं।
इस जनजातीय समाज में हिंदू ऋषि जमदग्नि को देवता मानकर पूजा करना हास्यास्पद लगता है, क्योंकि देवता व ऋषि भिन्न-भिन्न शक्तियां हैं। बुद्धकालीन उत्तर भारत मे स्वतंत्र स्वत:शासी प्रणाली के कई गणराज्य थे। स्वयं बुद्ध भी गणतंत्र राज्यों के बड़े प्रशंसक थे।
मलाणा की भांति लोकतंत्र प्रणाली
वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के सुदूर उत्तर पश्चिमी कबाइली क्षेत्र (पाकिस्तान अधिकृत) गिलगित नदी की सहायक नदियों के मसतूज और चितराल घाटियों में बसे सात गांवों दरेल, तनगीर, गोर, थालिचा, चिलास, कोली और पालूस में मलाणा की ही भांति स्वत:शासी लोकतंत्र प्रणाली की ग्राम पंचायतें हैं।
स्थानीय दरद भाषा में इस प्रणाली को ‘सीगास’ कहा जाता है। चुने हुए सदस्य को ‘जोस्टेरा’ कहते हैं। यदि जनमत के फैसले के विरुद्ध एक सदस्य भी खड़ा हो जाए तो उस फैसले को तब तक टाल दिया जाता है, जब तक वह विरोधी सदस्य मान न जाए।
विस्मृति के गर्भ में प्राचीन जङ्-जुङ्
यह राज्य पश्चिमी तिब्बत के पठार और अप्पर सिंधु जलागम क्षेत्र समेत, उत्तर में क्यून लुन शान और दक्षिण में हिमालय के कुछ भीतरी भागों पर आधारित एक विस्तृत भू-भाग में स्थापित था। यहां के निवासियों की भाषा ‘जङ्-जुङ् कद’ थी और धर्म बोन या बोनो था।
सातवीं शताब्दी में तिब्बत सम्राट स्रोङ चन गपो ने अपने साम्राज्य के साथ मिलकर इस साम्राज्य का अस्तित्व ही मिटा दिया। बीतते समय में इस राज्य ने अपने अस्तित्व को सदा के लिए खो दिया और पूर्णतया तिब्बती संस्कृति में समाहित हो गया।
मलाणा पर हुए व्यापक शोधकार्य
अब विश्व के विभिन्न शोधार्थियों ने इस पर व्यापक शोधकार्य करते हुए इसके पहलुओं को जगत के समक्ष प्रमाणों के साथ रखा है, जिसमें मुख्य रूप से इस साम्राज्य का भाषाई अध्ययन शामिल है।
सर्वप्रथम एएफपी हरकोर्ट ने अपनी पुस्तक ‘हिमालयन डिस्ट्रिक ऑफ कुल्लू, लाहौल एंड स्पिति’ में कणाशी के चंद नमूने दिए। एएच डाइक ने ‘कुल्लू डाइलेक्ट ऑफ हिंदी’ नामक पुस्तक में मलाणा की शब्दाबली दी है।
जीसीएल होबैल असिस्टेंट कमिश्नर कुल्लू द्वारा भेजे गए मलाणा बोली पर परिचय लेख को डॉ. ग्रियर्सन ने ‘लिंग्वेस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया’ पुस्तक में खंड-तीन में छापा है। ग्रियर्सन ने भी कणाशी बोली को तिब्बती-बर्मी भाषा परिवार की पश्चिमी तिब्बती हिमालयन भाषा का ग्रुप माना है।
सीमाओं में नहीं बंधा था हिमालय
छेरिंग दोरजे के शोध के अनुसार, मलाणा के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विषय मे हमारे पूर्व में बनाए गए मत ध्वस्त होते हैं। उन्होंने लिखा है कि मलाणा पर व्यापक शोध करने की आवश्यकता है।
बोन संप्रदाय के विद्वानों से उन्होंने मलाणा में बचे हुए बोन रीति-रिवाजों पर शोध करने के लिए आग्रह किया था । वे जोर देकर कहते रहे कि मलाणा वासी सिकंदर के वंशज नहीं है, बल्कि प्राचीन इंडो-मंगोलियन जनजाति के लोग हैं।
यह उस समय के लोग हैं जब हिमालय न तो देशों की सीमाएं में बंधा हुआ था, न ही यहां किसी प्रकार की देशज भिन्नता थी।
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