संघ की गुरु पूजन और गुरु दक्षिणा की अनूठी भारतीय परंपरा

संघ की गुरु पूजन और गुरु दक्षिणा की अनूठी भारतीय परंपरा
आचार्य गौरव शर्मा/ शिमला
गुरु पूर्णिमा आध्यात्मिक पथ पर हमारा मार्गदर्शन करने में गुरु की अमूल्य भूमिका का स्मरण कराता है। श्री कृष्ण भगवान ने गीता मे कहा है – “आचार्यम् माम् विजानीयात्”
मतलब गुरु को मेरा ही स्वरूप समझो। यह शिक्षा धरती पर भगवान के दिव्य प्रतिनिधि के रूप में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करती है। वेद व्यास जी भारतवर्ष के साथ उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया। भगवान वेदव्यास जगत् गुरु हैं। इसीलिए कहा है- “व्यासो नारायणम् स्वयं”- इस दृष्टि से गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा गया है।
प्राचीन भारत में छात्र संतों के आश्रमों में रहते थे और अपनी शिक्षा और प्रशिक्षण पूरा करने के बाद गुरु के प्रति सम्मान के रूप में दक्षिणा देते थे। हिंदू परंपरा में, भेंट का मूल्य मायने नहीं रखता था, बल्कि जो मायने रखता था वह था दक्षिणा के प्रति कृतज्ञता का भाव। जो भी भेंट करते थे, गुरु उसे समान संतुष्टि के साथ स्वीकार करते थे। इस पवित्र परंपरा को आधुनिक समय में आरएसएस ने अपनी शाखा में पुनर्जीवित किया, जो इसकी स्थापना के समय से ही चली आ रही है और आज भी निभाई जाती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने गुरु स्थान पर भगवाध्वज को स्थापित किया है। भगवाध्वज त्याग, समर्पण का प्रतीक है। स्वयं जलते हुए सारे विश्व को प्रकाश देने वाले सूर्य के रंग का प्रतीक है। संपूर्ण जीवों के शाश्वत सुख के लिए समर्पण करने वाले साधु, संत भगवा वस्त्र ही पहनते हैं, इसलिए भगवा, केसरिया त्याग का प्रतीक है। अपने राष्ट्र जीवन के, मानव जीवन के इतिहास का साक्षी यह ध्वज है। यह शाश्वत है, अनंत है, चिरंतन है।
संघ तत्व पूजा करता है, व्यक्ति पूजा नहीं। व्यक्ति शाश्वत नहीं, समाज शाश्वत है। संपूर्ण हिन्दू समाज को राष्ट्रीयता के आधार पर, मातृभूमि के आधार पर संगठित करने का कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। इस नाते किसी व्यक्ति को गुरुस्थान पर न रखते हुए भगवाध्वज को ही गुरु माना है।
इस पर्व के माध्यम से स्वयंसेवकों को याद दिलाया जाता है कि संघ में व्यक्ति का नहीं, विचार का महत्व है, इसीलिए किसी व्यक्ति को गुरु न मानकर संघ ने भगवा ध्वज को गुरू माना है। भगवा ध्वज को गुरु मानने का कारण यह है कि यह भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा का अभिन्न अंग रहा है जिसमें इसे त्याग, बलिदान व शौर्य का प्रतीक माना गया है।
डॉ. हेडगेवार जी ने फिर से संपूर्ण समाज में, प्रत्येक व्यक्ति में समर्पण भाव जगाने के लिए, गुरुपूजा की, भगवाध्वज की पूजा का परंपरा प्रारंभ की। भगवाध्वज की पूजा यानी गुरुपूजा यानी-त्याग, समर्पण जैसे गुणों को अपने जीवन में उतारते हुए समाज की सेवा करना है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी ने स्वयं अपने जीवन को अपने समाज की सेवा में अर्पित किया था।
भगवा ध्वज भारत की सनातन संस्कृति का प्रतीक है। इसी प्रतीक में भारत की समूची ऋषि-परम्परा छिपी है। यही कारण है कि इस उत्सव के माध्यम से स्वयंसेवक देश की प्राचीन संस्कृति की अमूल्य धरोहर से जुड़ते हैं और भारतीय संस्कारों पर गर्व करते हैं।
संघ में गुरु पूर्णिमा को श्री गुरु दक्षिणा के रूप में भी मनाया जाता है। संघ की शाखाओं में गुरुपूजा यानी भगवाध्वज की पूजा स्वयंसेवक करते हैं। अपने तन-मन-धन का धर्म मार्ग से विकास करते हुए, विकसित व्यक्तित्व को समाज सेवा में समर्पित करने का संकल्प लेते हुए, संकल्प को आगे बढ़ाते हुए, जीवन भर व्रतधारी होकर जीने के लिए हर वर्ष भगवाध्वज की पूजा करते हैं।
यह दान नहीं, उपकार नहीं, यह अपना परम कर्तव्य है। समर्पण में ही अपने जीवन की सार्थकता है, यही भावना है। परिवार के लिए काम करना गलत नहीं है, परंतु केवल परिवार के लिए ही काम करना गलत है। यह अपनी संस्कृति नहीं है। परिवार के लिए जितनी श्रद्धा से कठोर परिश्रम करते हैं, उसी श्रद्धा से, वैसी कर्तव्य भावना से समाज के लिए काम करना ही समर्पण है। समर्पण भाव से ही सारे समाज में एकात्म भाव भी बढ़ जाएगा। इस भावना से ही लाखों स्वयंसेवक अपने समाज के विकास के लिए, हजारों सेवा प्रकल्प चलाते हैं।
यह सर्वविदित तथ्य है कि संघ किसी बाहरी व्यक्ति से किसी प्रकार की धनराशि या आर्थिक सहायता नहीं स्वीकार करता। संघ के किसी भी व्यय के लिए धन-राशि जुटाने का काम उसके स्वयंसेवक ही करते हैं। स्वयंसेवक अपने अर्जित धन में से ही कुछ अंश संघ के लिए समर्पित करें उनके इस समर्पण से उनका अहंकार न बढ़े, अपितु समर्पण भाव और अधिक निस्वार्थ, निश्छल तथा कामनारहित बने, इस संस्कार के लिए संघ ने एक नई रीति निकाली है। स्वयंसेवक जो भी धनराशि अपने गुरु भगवाध्वज के समक्ष अर्पित करते हैं, उसकी घोषणा नहीं की जाती। वह दक्षिणा गुप्त रहती है। इसके लिए व्यवस्था यह की जाती है कि सभी स्वयंसेवक एक बंद लिफाफे में अपनी धनराशि ध्वज के समक्ष अर्पित करते हैं। उस लिफाफे में शून्य से लेकर असीम तक कितनी भी धनराशि हो सकती है। किंतु सभी स्वयंसेवक एक पंक्ति में बैठकर बारी-बारी से आते हैं और भगवाध्वज के समक्ष समर्पण करते हैं।
श्री गुरु-दक्षिणा के माध्यम से स्वयंसेवकों को यह भी याद कराया जाता है कि व्यक्ति को गुरु का स्थान नहीं दिया जा सकता, क्योंकि व्यक्ति अंतिम सत्य नहीं है। हम जिस भारतीयता और हिंदुत्व के पथ के राही हैं, उसके एक नहीं अनेक रूप, पंथ और सम्प्रदाय हैं। उन सबका कोई एक निर्विवाद और समेकित मार्गदर्शक हो सकता है, तो वह है भगवा ध्वज। इसलिए त्याग, वैराग्य और ज्ञान की परम्परा का प्रतीक भगवा ध्वज ही हमारे लिए गुरु है। हमें बदलते वक्त के साथ उसी परंपरा से प्रेरणा ग्रहण करके समाज जीवन की रचना करनी है।
हिमाचल और देश-दुनिया की अपडेट के लिए join करें हिमाचल बिज़नेस
https://himachalbusiness.com/charity-helping-the-needy-at-the-age-of-96-bilaspurs-dei-ji-is-honored/