‘सपरूहल कुहल’ : बलिदान देकर चढ़ा था कुहल में पानी, जब रोक दिया पानी तो फिर दी कुर्बानी

‘सपरूहल कुहल’ : बलिदान देकर चढ़ा था कुहल में पानी, जब रोक दिया पानी तो फिर दी कुर्बानी
विनोद भावुक / धर्मशाला
साल 1987 की बात है। बनेर खड्ड से शुरू कर परौर और खरोठ गांवों के खेतों की सिंचाई करने वाली ‘सपरूहल कुहल’ को लाहला गांव के कुछ स्वर्णों ने हथियाने की साजिश रची। कुहल के निर्माण से संबन्धित शिलालेख को तोड़कर उसका बदलकर ‘बरूहल कुहल’ रख दिया और परौर और खरोठ गांवों को सिंचाई के लिए पानी देना बंद कर दिया। ऐतिहासिक कुहल को कब्जाने के फैसले का कडा विरोध शुरू हो गया। विरोध हिंसा में बदल गया और परौर और खरोठ गांवों के घृत समुदाय के दो युवकों की धोखे से हत्या कर दी गई। इस पर घृत समुदाय के लोगों ने कुहल पर 12-12 लोगों की टोलियां तैनात कर सिंचाई सुविधा बहाल कर दी।
मामला कमीश्नर के पास पहुंचा और दोनों ओर से दावे किए गए। घृत समुदाय के लोगों ने कुहल से जुड़े बलिदान का इतिहास और कुहल निर्माण से संबन्धित रसीदें पेश कीं। कमीशनर कोर्ट ने निर्णय दिया कि कुहल का असली नाम ‘सपरूहल कुहल ही रहेगा और पानी का अधिकार परौर और खरोठ गांवों के घृत समुदाय का ही रहेगा। अमेरिका के विख्यात लेखक एवं शोधकर्ता मार्क बेकर ने अपनी पुस्तक ‘द कुहल्स ऑफ कांगड़ा’ में इस कुहल से जुड़े इतिहास को दुनिया के सामने पेश किया है।
बहू की कुर्बानी, मन्दिर है निशानी
मार्क बेकर लिखते हैं कि बनेर खड्ड से निकलने वाली साधारण सी दिखने वाली सदियों पुरानी ‘सपरूहल कुहल’ अपने भीतर बलिदान, निष्ठा और सांस्कृतिक चेतना की अमर गाथा समेटे है। जहां से यह कुहल शुरू होती है, उसके नजदीक ही एक छोटा सा मंदिर बना है। मंदिर के साथ ही इस कुहल के निर्माण से संबन्धित शिलालेख खुदा है। शिलालेख कहता है कि इस कुहल के निर्माण के लिए घृतवंश समुदाय के मुखिया की बहू ने बलिदान दिया गया था।
आज भी सुलह विधानसभा क्षेत्र के तहत आते परौर और खरोठ गांव के लोग हर वर्ष बलिदान देने वाली बहु की स्मृति में बने मंदिर जाकर पूजा करते हैं। सुहाग का जोड़ा अर्पित करते हैं और अपनी आने वाली पीढ़ियों को बताते हैं कि हमारे खेतों में बहता यह पानी किसी सरकारी योजना की कृपा नहीं, बल्कि एक बहु की बलि और पूर्वजों के बलिदान की देन है।
15 किलोमीटर खुदाई, नहीं चढ़ा पानी
मार्क बेकर लिखते हैं कि 18वीं सदी की किंवदंती है कि कांगड़ा के परौर और खरोठ गांवों के घृत परिवारों ने यह निर्णय लिया कि वे बनेर दरिया से अपने खेतों तक अपने बलबूते पर एक सिंचाई कुहल का निर्माण करेंगे। पहाड़ी ढलानों के बीच 15 किलोमीटर लंबी कूहल के निर्माण के लिए सर्वेक्षण करने के लिए कंडी गांव के एक गद्दी की सहायता ली गई। इस गद्दी की मदद से कूहल का खाका तैयार हुआ।
परौर और खरोठ गांवों के लोगों ने कड़ी मेहनत से कुहल खोद डाली। अब बनेर से कुहल में पानी चढ़ाना था। लोगों ने कुहल में पानी चढ़ाने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन हर कोशिश बेकार साबित हुई। किसी भी तरकीब से कुहल में पानी नहीं चढ़ पाया।
बहू का बलिदान, मुश्किल हुई आसान
‘द कुहल्स ऑफ कांगड़ा’ पुस्तक में प्रकाशित प्रसंग के मुताबिक तब समुदाय के धार्मिक विश्वास एवं संस्कृति के अनुसार एक देवता के पुजारी ‘चेला’ को बुला कर पूछ ली गई। ‘चेला’ बोला कि यदि समुदाय के किसी प्रभावशाली परिवार की बहु की बलि दे, तभी इस कुहल में पानी चढ़ेगा। समुदाय के मुखिया ने इसे अपनी जिम्मेवारी समझते हुए मायके गई अपनी बहू को बिरादरी की भलाई के लिए कुर्बान होने का संदेश भिजवाया।
मुखिया की बहू ससुर के हुक्म पर जीवन उत्सर्ग के लिए अपनी इच्छा से तैयार हुई। बहू को दुल्हन की तरह सजा कर कुहल के मुहाने पर चुनवाते ही कुहल में पानी चढ़ आया। कालांतर में इस कुहल के लिए बहू के बलिदान की यह घटना लोकगीतों में ढल कर अमर हो गई।
‘सपरूहल : कुहल के नाम में छुपा अर्थ
मार्क बेकर लिखते हैं कि बहु के बलिदान की स्मृति को हमेशा ताज़ा रखने के लिए एक छोटे से मंदिर का निर्माण किया गया। मंदिर के साथ ही इस कुहल के निर्माण से संबन्धित शिलालेख खुदा है। कुहल ‘सपरूहल कुहल’ का अर्थ है, बहु जिसने कुहल के निर्माण के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया।
यह केवल एक कुहल की कहानी नहीं, बल्कि यह नारी सम्मान, लोक कल्याण और सामुदायिक एकता की गाथा है। जरूरी है इस गरिमामायी इतिहास को संजोकर दुनिया को बताया जाये कि कैसे एक पर्वतीय समाज ने संस्कृति, आस्था और बलिदान से सिंचाई व्यवस्था खड़ी की थी। बलिदानी बहु की अमर स्मृति को समर्पित ‘सपरूहल कुहल’ पीढ़ी दर पीढ़ी बहती रहे।
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