‘नानकू’ की आवाज की पूंजी, पहाड़ के घर- घर में गूंजी, आकाशवाणी शिमला का सबसे चर्चित करेक्टर थे थ्री एस ठाकुर

‘नानकू’ की आवाज की पूंजी, पहाड़ के घर- घर में गूंजी, आकाशवाणी शिमला का सबसे चर्चित करेक्टर थे थ्री एस ठाकुर
विनोद भावुक/ शिमला
साल था 1955 का। शिमला की ठंडी ताज़ा हवा में एक नई आवाज़ गूंजने लगी — आकाशवाणी शिमला।
ये सिर्फ़ एक सरकारी रेडियो स्टेशन नहीं था… ये पहाड़ का अपना आईना था। और उस आईने में सबसे प्यारा चेहरा था शिवशरण सिंह ठाकुर, यानी एस. एस. एस. ठाकुर — जिन्हें लोग प्यार से बुलाते थे थ्री एस ठाकुर या बस नानकू।
हिमाचल कला, संस्कृति, भाषा अकादमी द्वारा अशोक हंस के सम्पादन में 1999 में प्रकाशित पुस्तक’ पर्वत से उभरे कलाकार’ में अकादमी के पूर्व सचिव तुलसी रमन ने शिवशरण सिंह ठाकुर के व्यक्तित्व और कृतित्व का सलीके से चित्रण किया है।


रेडियो पर उनका नानकू किरदार ऐसा था, जैसे आपके गांव का कोई मस्तमौला, जो खेत-खलिहान, मेलों-ठेलों, और घर-आंगन की बातें उसी देसी ठाठ में करता था, जैसी भाषा लोग खुद बोलते थे। लोग नानकू को सुनकर इतने हंसते, सोचते, और जुड़ जाते कि वे आपस में भी उसी अंदाज़ में बात करने लगते।

ठाकुर साहब ने ठान लिया था — रेडियो सिर्फ़ शहर का नहीं होगा, गांव-देहात की बोली, गीत, कहानियां, और दुख-सुख भी इसमें गूंजेंगे।
वो ढोल-नगाड़ा, तबला खुद बजाते, लोक-धुनों को नाटकों में पिरोते और कलाकार ढूंढने के लिए गांव-गांव पैदल निकल जाते। उनकी कोशिशों से हिमाचली करयाला नाटक दूरदर्शन तक पहुंचा और किताबों में दर्ज हुआ।

ठाकुर के निर्देशन में ‘नेपोलियन की मौत’, ‘कबूतरी’, ‘एकला चलो’, और ‘बलिदान’ जैसे रेडियो-नाटक इतने असरदार हुए कि आज भी पुराने श्रोता उन्हें याद करके मुस्कुराते हैं। सआदत हसन मंटो ने तो अपने रेडियो-नाटकों की किताब ‘जनाज़े’ उन्हीं को समर्पित कर दी थी!

रेडियो के साथ-साथ उन्होंने दूरदर्शन के लिए ‘ईश्वर भक्ति’ और ‘नेक परवीन’ जैसे चर्चित नाटक तैयार किए, और विविध भारती के मशहूर ‘हवामहल’ की परिकल्पना भी उनकी थी।
कला और संगीत के मेल पर शोध के लिए उन्हें केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी की फैलोशिप मिली।


चार दशकों की सेवा में दिल्ली से मुंबई, लखनऊ से विदेश सेवा प्रभाग — जहां भी गए, लोक-संस्कृति को मंच दिया। उन्हें सर्वोच्च निष्पादन कला राज्य सम्मान (1987), केंद्रीय संगीत-नाटक अकादमी पुरस्कार (1991) और शिखर सम्मान (1995) जैसे बड़े पुरस्कार मिले।
फिर भी, ठाकुर साहब कहते थे — “सही बात कहनी हो, तो वही क्योंठली पहाड़ी बोलनी पड़ती है, जो मां के दूध के साथ सीखी थी।”

25 जनवरी 1996 को वो दिल्ली में चल बसे, लेकिन ‘नानकू’ की आवाज़ अब भी पहाड़ के बुजुर्गों की यादों में, लोक-गीतों में और पुराने रेडियो टेपों में जिंदा है।
क्योंकि ये सिर्फ़ एक आदमी की कहानी नहीं, बल्कि उस दौर की कहानी है, जब रेडियो सचमुच दिलों को जोड़ता था।

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