नगराओं के 67 साल के लक्ष्मण के हाथों के हुनर का कमाल, पचास साल से खड्डी पर बुन रहे शॉल, मफलर और कोट की पट्टियां बेमिसाल

नगराओं के 67 साल के लक्ष्मण के हाथों के हुनर का कमाल, पचास साल से खड्डी पर बुन रहे शॉल, मफलर और कोट की पट्टियां बेमिसाल
जगदीश शर्मा/ पांगणा
मंडी जिला के ऐतिहासिक पांगणा इलाके के नजदीकी गांव नगराओं के 67 वर्षीय लक्ष्मण पांच दशकों से अपनी पुश्तैनी खड्डी पर शॉल, मफलर व कोट की पट्टियां बनाकर हाथ के हुनर की कला को जिंदा रखे हुए है। लक्ष्मण ने बुशहर के अपने नाना व किन्नौर से विवाहित नानी से खड्डी पर कपड़ा बुनने का हुनर को सीखा और इसमें महारत हासिल की है।
लक्ष्मण बताते हैं कि मशीनकरण के इस युग में खड्डी पर शॉल, पट्टी व मफलर को बुनने से आर्थिक लाभ बहुत कम है और मुश्किल से तीन सौ रूपए दिहाड़ी अर्जित होती है। ऐसे में नई पीढ़ी के लोग इस पारम्परिक कार्य को सीखने के प्रति उदासीन हैं।
कभी पांगणा में लगीं थीं कई खड्डियां
सुकेत संस्कृति साहित्य और जन-कल्याण मंच पांगणा-सुकेत के अध्यक्ष डॉ हिमेन्द्र बाली ‘हिम’ का कहना है कि कभी सुकेत की राजधानी पांगणा में स्वदेशी कपड़ा बुनने के लिये अनेक खड्डियां लगाई गईं थीं। लोग खड्डियों पर बुने कपड़ों को पहनकर राष्ट्रीयता का अनुभव कर गौरवान्वित अनुभव करते थे। खड्डी पर बना उत्पाद टिकाऊ और गुणवत्तायुक्त होता था।
उनका कहना है कि बदलते परिवेश में राष्ट्रीयता के प्रतीक हथकरघा उद्योग के संरक्षण व नवीकरण की बहुत आवश्यकता है। इससे जहां पारम्परिक उद्यमशीलता का संरक्षण होगा, वहीं भारतीयता का वैभव भी पुष्ट होगा।
विलुप्त हो गईं खड्डियों की संस्कृति
बता दें कि 1905 में बंगाल विभाजन से स्वेदेशी, स्वराज्य और बहिष्कार का उद्घोष होने से चरखा हर घर की पहचान बन गया। चरखे पर बने सूत के हथकरघा मशीन के माध्यम से कपड़ा बनाकर स्वदेशी की जयघोष राष्ट्रव्यापी हो गया। गांधी के चलाए गए आन्दोलन से चरखा पहाड़ पर भी राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया। परिणामस्वरूप चरखे पर बने सूत से हथकरखा उद्योग का आरम्भ हुआ।
अध्यक्ष डॉ हिमेन्द्र बाली ‘हिम’ का कहना है कि स्वतंत्रता के बाद औद्योगिकीकरण के कारण हथकरघा उद्योग को बड़ा आघात पहुंचा। अब आलम यह है कि अधिकतर घरों में स्थापित खड्डियां विलुप्त हो गईं हैं।
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