ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती, हंगरी के अलेक्जेंडर क्सोमा ने 200 साल पहले किन्नौर में सीखी थी तिब्बती भाषा, आधुनिक तिब्बती अध्ययन के पथप्रदर्शक

ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती, हंगरी के अलेक्जेंडर क्सोमा ने 200 साल पहले किन्नौर में सीखी थी तिब्बती भाषा, आधुनिक तिब्बती अध्ययन के पथप्रदर्शक
ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती, हंगरी के अलेक्जेंडर क्सोमा ने 200 साल पहले किन्नौर में सीखी थी तिब्बती भाषा, आधुनिक तिब्बती अध्ययन के पथप्रदर्शक
विनोद भावुक/ शिमला
19वीं सदी के आरंभिक दशकों में हंगरी से आए एक साधारण से दिखने वाले असाधारण प्रतिभा के धनी विद्वान अलेक्जेंडर क्सोमा डी कोरोस ने भारत की हिमालयी वादियों में कदम रखा। मध्य एशिया के भाषाई मूल को खोजने के लिए वे भारत आए थे, लेकिन ज्ञान और आध्यात्म की खोज में यह यात्रा उन्हें भारत और तिब्बत की सीमा पर बसे किन्नौर जैसे दुर्गम इलाकों में ले आई और आज भी उन्हें आधुनिक तिब्बती अध्ययन का पथप्रदर्शक माना जाता है। दुनिया की नजर से अनजान किन्नौर उनकी तिब्बती भाषा की साधना का गवाह बना।
अलेक्जेंडर क्सोमा डी कोरोस ने 1827 से 1830 तक किन्नौर जिले के कल्पा के पास स्थित कानम मठ में निवास किया। वहां से वे जिन चोटियों को निहारा करते थे, उन्हें उन्होंने “शुरंग पर्वत” नाम दिया था। विलियम मूरक्रॉफ्ट के संपर्क में आकर उन्होंने लद्दाख और ज़ांस्कर की यात्रा की और इसी क्रम में वे किन्नौर की सीमाओं तक पहुँचे। उनकी जीवनगाथा इस बात का प्रमाण है कि सीमाएं केवल भौगोलिक होती हैं। ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती।
ब्रिटिश पुलिस ने सुबाथु में किया था गिरफ्तार
अलेक्जेंडर क्सोमा डी कोरोस 1825–1826 में वे सुबाथू में रहे। वे कुल्लू जाने की योजना बना रहे थे, तभी ब्रिटिश अफसरों को उन पर जासूस होने का संदेह हुआ तो सोलन के पास उन्हें हिरासत में लिया गया। मूरक्रॉफ्ट को जब इस बात की सूचना मिली तो उन्होंने एक पत्र भेजकर पुष्टि की कि उक्त व्यक्ति एक विद्वान और शोधार्थी है। इस पत्र के मिलने के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें जेल से बारी किया।
हंगरी के सेना अधिकारी रहे तिवादार डुका ने 1885 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘लाइफ एंड वर्क्स ऑफ अलेक्जेंडर सीसोमा डी कोरोस’ में लिखा है कि किन्नौर न सिर्फ उनके ज्ञान की तपोभूमि बना और यहीं से उन्होंने यूरोपीय और एशियाई ज्ञान परंपराओं को एक धागे में पिरोने का प्रयास किया। हीरेन्द्र नाथ मुखर्जी ने उन पर “द ग्रेट टिबेटोलॉजिस्ट अलेक्जेंडर क्सोमा डी कोरोस’ पुस्तक लिखी है।
तिब्बती-हिंदी-इंग्लिश शब्दकोश के जनक
किन्नौर प्रवास के दौरान अलेक्जेंडर क्सोमा डी कोरोस ने तिब्बती भाषा में गहरी पैठ बनाई। उन्होंने बौद्ध दर्शन, संस्कृति और साहित्य को भी आत्मसात किया। उन्होंने स्थानीय लामाओं से संवाद, बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन, और तिब्बती-हिंदी-इंग्लिश शब्दावली के निर्माण की दिशा में गंभीर कार्य शुरू किया।
उनका जीवन अत्यंत सादा था। एक यात्री विद्वान के रूप में न सुविधाओं की तलाश की और न प्रसिद्धि की। उनका सारा ध्यान अध्ययन, तिब्बती भाषा और तिब्बती बौद्ध ग्रंथों की गूढ़ता को समझने पर फोकस रहा।
उन्होंने कांग्यूर (100 खंड) और तेंग्यूर (240 खंड) जैसे विशाल तिब्बती ग्रंथों का अध्ययन किया। किन्नौर की पहाड़ियोंने उन्हें वह एकांत और शांति दी, जिसकी उन्हें भाषा व संस्कृति में डूबने के लिए ज़रूरत थी। तिब्बती सीखने के लिए 50 रुपये प्रति माह का वजीफ़ा दिया। उन्होंने तिब्बती भाषा में पहला अंग्रेज़ी-तिब्बती शब्दकोश संकलित करना शुरू किया। इसमें उन्हें कई साल लगे। यह शब्दकोश आज भी तिब्बती अध्ययन के छात्रों के लिए आधारशिला माना जाता है।
मलेरिया ने ली जान, दार्जिलिंग में हुई मौत
1831 में अंग्रेजी सरकार के बुलावे पर वे कोलकाता चले और रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल में शामिल हो गए। उनके काम ने संस्कृत के विद्वान और ओरिएंटलिस्ट होरेस हेमैन विल्सन का ध्यान आकर्षित 1837 में वे एशियाटिक सोसाइटी के लाइब्रेरियन बन गए और तिब्बती धार्मिक ग्रंथों पर शोध करना जारी रखा। वे 1842 के शुरुआती हिस्से तक कोलकाता में ही रहे।
वे ल्हासा और मध्य तिब्बत की यात्रा पर निकले लेकिन मार्च में तराई को पार करते समय उन्हें मलेरिया हो गया। इसी हाल में दार्जिलिंग पहुँचे और वहीं उनका निधन हो गया। दार्जिलिंग में क्सोमा का एक स्मारक बनाया गया है। हंगरी में उन्हें एक तीर्थयात्री विद्वान के रूप में याद किया जाता है।
हिमाचल और देश-दुनिया की अपडेट के लिए join करें हिमाचल बिज़नेस
https://himachalbusiness.com/wonder-kid-5-year-old-master-saksham-of-rampur-is-the-youngest-map-genius-of-india-dps-knows-the-flags-languages-currencies-and-capitals-of-195-countries/

Jyoti maurya

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *