सैनिक की आंख से : भारत विभाजन के दौर में कांगड़ा बना था भीषण मानव त्रासदी का मूक साक्षी

सैनिक की आंख से : भारत विभाजन के दौर में कांगड़ा बना था भीषण मानव त्रासदी का मूक साक्षी
विनोद भावुक/ धर्मशाला
1947 के भारत विभाजन का असर केवल सीमावर्ती इलाकों तक सीमित नहीं रहा था, बल्कि हिमालय की शांत घाटियों तक उसकी आग पहुंची थी। आज जिस कांगड़ा को सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र माना जाता है, उस दौर में भीषण मानव त्रासदी का मूक साक्षी बना था। ब्रिटिश-भारतीय सेना की गोरखा राइफल्स के लेफ्टिनेंट लेस्ली निक्सन कांगड़ा क्षेत्र में तैनात थे। विभाजन के समय उन्होंने पठानकोट, अमृतसर और जालंधर की ओर पलायन करते लोगों की सुरक्षा का जिम्मा संभाला था।
आगरा में पैदा हुए और मसूरी से पढे लेस्ली निक्सन के मानसिक जीवन पर भारत विभाजन के समय की हिंसा गहरा असर छोड़ गई। सैन्य अधिकारी पिता के अनुभवों को उनकी बेटी लेखिका डेबोरा निक्सन ने अपनी पुस्तक “Memories I Never Had: Fires in the Kangra’ में कलमबद्ध किया हैं। डेबोरा ने नॉस्टैल्जिया और अस्वीकृति के बीच जूझते अपने पिता लेस्ली की मानसिकता को बेहद मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है।
लाशों से भरी ट्रेनें, कुओं में कूदती महिलाएं
डेबोरा ने अपने पिता के संस्मरणों के आधार पर लिखा है कि ट्रेनें लाशों से भरी थीं, जिनके डिब्बों में मृत शरीर थे। ट्रेनों की खिड़कियों पर लटकते लोग थे। महिलाएं खुद कुओं में कूद जाती थीं, क्योंकि उन्हें डर था कि दुश्मन उनके साथ बहुत बुरा व्यवहार करेगा।
डेबोरा लिखती हैं कि उनके पिता लेस्ली ने एक छोटी लड़की को गोली लगने और मरते देखा था, जिसे वे अपनी बेटी जैसी मानते थे। विभाजन की त्रासदी का उनका अनुभव इतना भयावह और गहरा था कि वे वर्षों सदमे, चुप्पी और अपराधबोध से बाहर नहीं निकाल पाये।
लोगों को पुलों पर दिखने लगे भूत
पिता से संस्मरणों के आधार पर डेबोरा लिखती हैं कि विभाजन के दौरान सिर्फ हिंसा और विस्थापन ही नहीं हुआ, बल्कि लोकस्मृति में गूंजते कुछ अजीबोगरीब अनुभव भी जुड़े। चंबी, चक्की और दौलतपुर सहित कई पुलों पर रात में दौड़ते हुए ‘भूत’ दिखने लगे। पुलों पर सुन्दर दुल्हन के रूप में भूत-प्रेत दिखने और भूतों द्वारा लोगों का पीछा करने की कहानियां आम थीं।
भारत विभाजन के समय जब कांगड़ा में जब तक शरणार्थियों का आना-जाना लगा रहा, तब तक कांगड़ा घाटी से गुजरती ट्रेनों में वातावरण तनावपूर्ण रहा। ऐसे समय में कई पुलों पर पसरा अंधेरा लोकमानस में डर और कल्पनाओं को जन्म देता रहा।
पलायन कर आने वाली किशोरी की कहानी
“Memories I Never Had: Fires in the Kangra’ में डेबोरा लिखती हैं कि उनके पिता लेस्ली के संस्मरणों में एक 14 वर्षीय किशोरी का जिक्र है, जो अपने परिवार के साथ पंजाब के संकटकालीन हालातों से भागती हुई कांगड़ा पहुंचती है। जब परिवार कांगड़ा पहुंचा था, तो वह रेह्लू नामक एक शांत गाँव में बस गया। गाँव का माहौल शुरू में सुरक्षित और शांतिपूर्ण था।
कुछ ही दिनों बाद रेह्लू गाँव में भी सांप्रदायिक अशांति फैल गई और अचानक मलेरिया के संक्रमण ने गाँव को बुरी तरह से प्रभावित कर दिया, जिससे परिवार की स्थिति और जटिल हो गई। लंबे अर्से तक कांगड़ा जनपद में भारत विभाजन का प्रभाव देखा गया।
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