यात्रा संस्मरण : जुलाई 1935 में कुल्लू- मनाली प्रवास के दौरान ’अज्ञेय’ ने लिखा था ‘देवताओं का अंचल : कुल्लू’

यात्रा संस्मरण : जुलाई 1935 में कुल्लू- मनाली प्रवास के दौरान ’अज्ञेय’ ने लिखा था ‘देवताओं का अंचल : कुल्लू’
यात्रा संस्मरण : जुलाई 1935 में कुल्लू- मनाली प्रवास के दौरान ’अज्ञेय’ ने लिखा था ‘देवताओं का अंचल : कुल्लू’
बिजनेस हिमाचल/ कुल्लू
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ’अज्ञेय’ का जन्म 7 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक गांव में हुआ था। वे प्रसिदृध लेखक ,कवि और उपन्यासकार थे। उन्हें वर्ष 1964 में “साहित्य अकादमी पुरस्कार, वर्ष 1979 में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ के लिए ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ वर्ष 1983 में ‘भारत भारती’ पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उनकी मृत्यु 4 अप्रैल, 1987 को हुई थी। 1935 में वे स्वास्थ्य लाभ के लिए मनाली आए थे। जुलाई 1935 में उन्होंने ‘देवताओं का अंचल : कुल्लू’ यात्रा संस्मरण लिखा था।
पढ़िये 90 साल पुराना यात्रा संस्मरण
‘यहाँ से देवताओं का अंचल आरंभ होता है’, इसका बड़ा बढ़िया प्रमाण यह मिला कि मानवों की सृष्टि मोटर को देवताओं की सृष्टि मानव के पीछे-पीछे चलना पड़ा। मंडी से कुल्लू-प्रदेश में जाते हुए व्यास नदी को रस्सी के झूलना पुल से पार करना पड़ता है। उस पर से लारी का जाना काफ़ी खतरनाक है।लारी चार मील की रफ़्तार से तेज़ न चले, इसका प्रबंध यह किया गया है कि पुल का चौकौदार अपनी पीठ पर एक तख्ती टाँगे (जिस पर बडे-बडे अक्षरों में लिखा रहता है- ‘चार मील रफ़्तार। (इस आदमी के पीछे-पीछे इसी की चाल से चलो!’) आगे-आगे चलता है और मोटर उसके पीछे चलती है। पुल के दोनों ओर पहरा रहता, ताकि चौकीदार की अनुमति के बिना कोई आर-पार न जा सके।
सौंदर्य अब भी वही, चमत्कार नष्ट
दस बजे के करीब हम लोग औट पहुँचे। यहाँ से एक सड़क शिमला जाती है। पहले यह मार्ग पैदल चलने वाले साहसिक लोगों के लिए बड़ा भारी आकर्षण था, लेकिन अब पक्की सड़क बन जाने से शिमला से फ़ैशनेबल सैलानी ‘वीक -एंड’ बिताने के लिए मोटर में बैठकर सीधे मनाली आ सकते हैं। आस-पास का सौंदर्य अब भी वही है, लेकिन चमत्कार नष्ट हो गया है। कुछ आगे से एक मार्ग मणिकर्ण भी जाता है। मणिकर्ण तीर्थ स्थान है। यहाँ गरम पानी के कई स्त्रोत हैं, जिनकी उष्णता अलग-अलग है। कोई नहाने के लिए ठीक है, तो किसी में चावल भी उबाले जा सकते हैं। व्यास नदी के किनारे-किनारे सुंदर किंतु कहीं-कहीं खतरनाक सड़क पर बढ़ते हुए हम लोग बारह बजे
कुल्लू पहुँच गए।
प्राचीन हिंदू-सभ्यता का गहवारा कुल्लू
कुल्लू प्राचीन हिंदू-सभ्यता का गहवारा है। यहाँ प्रत्येक कस्बे और ग्राम के अपने-अपने देवता हैं, जो अपने-अपने मंदिरों में बैठे हुए लोगों की पूजा पाते हैं और साल में एक बार अपने-अपने रथों में बैठकर कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में प्रतिष्ठित राम की उपासना के लिए जाते हैं। सैकड़ों देवी-देवताओं और उनके मंदिरों के कारण तथा इस विराट देव-सम्मेलन के कारण ही कुल्लू प्रदेश का नाम ‘देवताओं का अंचल’
(बैली ऑफ़ दि गॉड्स) पड़ा है।ये असंख्य देवी-देवता और ऋषि-मुनि यहाँ के आदिम निवासियों दूवारा पूजे जाते थे। यहाँ पर दशहरे के दिन विजयी राम का उत्सव होता है, जिसमें आसपास के सब देवी-देवता द रथों में बिठाकर लाए जाते हैं। इस विराट उत्सव में, ऐसा सुनने में आता हैं, हज़ार-हज़ार का सख्या तक देवता शामिल होते हैं।
स्वयंभू आदिम प्रवर्तक मंदिर
कुल्लू-प्रांत में व्यास-कुंड तथा व्यास मुनि, वशिष्ठ आदि ऋषि-मुनियों के स्थान हें, पांडवों के मंदिर हैं,भीम की पत्नी ‘हिडिंबा देवी‘ भी पूजी जाती हैं और सबसे बढ़कर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वहाँ पर “मनु रिखि’ यानी मनु भगवान का भी एक मंदिर है। शायद भारत में यह एकमात्र स्थान है, जहाँ मानवता का यह स्वयंभू आदिम प्रवर्तक मंदिर में प्रतिष्ठित होकर पूजा जाता है।दशहरे के अवसर पर यहाँ बड़ा भारी मेला भी लगता है। सालभर का प्रायः इस एक दिन में ही हो जाता है।
उमंगें लेकर आते ग्राहक और विक्रेता
बाहर से आए हुए यात्रियों के लिए बनी हुई देशी-अंग्रेज़ी दुकानों और कुछ होटलों या पंसारी-हाट की बात अलग है इसलिए यहाँ पर ग्राहक और विक्रेता दोनों ही बड़ी उमंगें लेकर आते हैं। रंग-बिरंगे कंबल, पटट्‌-पट्टियाँ, पश्मीना, “चरू’ और अन्य प्रकार की खालें-रीछ की, मृग की, बाघ की, कभी-कभी बर्फ के बाघ (स्नो-लेपर्ड) की; तरह-तरह के जूते, मोजे, सिली-सिलाई पोशाकें, टोपियाँ, बांसुरी, बरतन, पीतल और चाँदी के आभूषण, लकड़ी, हड्डी और सींग की कंधियाँ, देशी और विदेशी काँच, बिल्लौर और पत्थर के मनकों के हार-न जाने क्या-क्या चीज़ें, वहाँ आती हैं और बिक जाती है। दिनभर में हज़ारों की संपत्ति हाथ बदल लेती है… तमाशे होते हैं, नाच होते हैं, गाना-बजाना होता है, जगमग रोशनी होती है।
‘मुनाल’ से आया मनाली
उस दिन कुल्लू में हम लोग दो घंटे ठहरे। भोजन किया और फिर लारी में बैठकर आगे बढ़े। मनाली-देवताओं के अंचल का ऊपरी छोर- कुल्लू से 23 मील दूर है। अध-बीच में कटराई की बस्ती है।कटराई से चलकर मोटर कलाथ होती हुई मनाली जा पहुँची। मनाली या मुनाली ने यह नाम ‘मुनाल’ नामक पक्षी से पाया, जो यहाँ बहुतायत में होता है।फ़ेज़ेंट जाति का हिमालय का यह पक्षी अत्यंत सुंदर होता है। इसके संबंध में यहाँ के लोगों में कई किवदंतियाँ भी सुनने में आती हैं, लेकिन मैदानी भाग में रहने वाले लोग मनाली को वहाँ के सेबों के कारण ही जानते हैं। सेब और नाशपाती के लिए मनाली शायद संसार में सबसे बढ़िया स्थान है।
तपस्या करते-करते पाषाण हो गए वशिष्ठ
मनाली की दो बस्तियाँ हैं- एक तो बाहर से आकर बसे हुए लोगों द्वारा बनाए हुए बंगलों और बाज़ार वाली बस्ती, जो ‘दाना‘ कहलाती है; और दूसरी उससे करीब मीलभर ऊपर चलकर खास मनाली गाँव की।मोटर ‘दाना’ तक जाती है। दाना से सड़क फिर व्यास नदी पार करके रोहतांग की जोत से होकर लाहौल को चली जाती है।इसी मार्ग पर मनाली से दो मील की दूरी पर वशिष्ठ नाम का गाँव है, जहाँ गरम पानी के कुंड हैं और वशिष्ठ मंदिर भी है। कहते हैं कि वशिष्ठ ऋषि यहीं तपस्या करते-करते पाषाण हो गए थे, उनकी पाषाण मूर्ति वहाँ पूजी भी जाती है। यहाँ पानी में गंधक की मात्रा काफ़ी है और यह स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा हे।
व्यास-कुंड से व्यास नदी का उद्गम
रोहतांग की जोत पर ही व्यास-कुंड है। यहाँ से कुछ मील हटकर व्यास मुनि का स्थान है, जहाँ से व्यास नदी का उद्गम है। रोहतांग का मार्ग बहुत रमणीक है। व्यास नदी के वेग से किस तरह पहाड़ के पहाड़ कट गए हैं, वह भी देखने की चीज़ है। कहीं कहीं तो नदी आठ-दस फुट चौड़ी दरार में चार-पाँच सौ फुट नीचे जाकर अदृश्य हो गई है, केवल स्वर सुनाई पड़ता है। इसका कारण यह है कि व्यास नदी बहुत तीव्र गति से नीचे उतरती है। अपने मार्ग के पहले पाँच मील में जितना नीचे उतर आती है, वह उतना अगले पचास मील में नहीं और उसके बाद में पाँच सौ मील में नहीं।
तीन नदियों का उद्गम
रोहतांग की जोत के दूसरी ओर कोकसर पड़ाव है। यहाँ जाते हुए बर्फ़ के सौंदर्य का जो दृश्य दिखता है,वैसा मैंने दूसरा नहीं देखा। उसका न वर्णन हो सकता है, न चित्र खिंच सकता है। कुछ मीलों के दायरे मेन एक प्याला सा बना हुआ है, जिसके सब ओर ऊँची-ऊँची हिमावृत चोटियाँ, उससे कुछ नीचे पहाड़ों के नंगे काले अंग और प्याले के बीच में फिर बर्फ़ से छाया हुआ मैदान-मानो अभिमानी पर्वत सरदारों
ने अपना शीश और कटि प्रदेश तो ढक लिया है, लेकिन छाती दर्प से खोल रखी है। इस स्थान से तीन नदियों का उद्गम है। ऊपर से व्यास, मध्य से चंद्रा और भागा, जो आगे चलकर मिल जाती हैं।
मनुष्य को भून- अपना भोजन तैयार करती थी हिडिंबा
दाना के दूसरी ओर पहाड़ की ढलान पर चीढ़ के जंगल में हिडिंबा देवी का मंदिर है। एक ही पेड़ के तने के आसपास बना हुआ यह लकड़ी का चार-मंजिला मंदिर दर्शनीय है। इसके दूवारों पर नक्काशी का जो काम है, वह कई सौ बरस पुराना है। वह कई सौ बरस पुराना है। एक पट्टे पर लेख भी खुदा हुआ है। मंदिर से मनाली की ओर जाते हुए मार्ग दो चट्टानों के बीच होकर गुज़रता है, जो अपने आकार के कारण ‘देवी का चूल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं कि हिडिंबा देवी मनुष्य को भून-भूनकर अपना भोजन तैयार करती थी। मनाली की बस्ती के ऊपरी छोर पर मनु रिखि का छोटा मंदिर है, विशेष सुंदर भी नहीं है; लेकिन मनु का एकमात्र मंदिर होने के कारण यह विशेष महत्त्व रखता है।
गंभीर चीज़ लिखने के लिए एकांत ज़रूरी
मैं मनाली आया तो था स्वास्थ्य-लाभ करने, लेकिन सबसे बड़ी आकांक्षा यह थी कि एकांत में रहकर एक बड़ा-सा उपन्यास लिख डालूँगा। जेल में रहते हुए उसका ढाँचा तैयार हुआ था और वह मैंने अंग्रेजी में पूरा लिख भी डाला था; लेकिन जेल के चार वर्षों ने मुझे यह भी दिखा दिया था कि उसमें अभी लड़कपन बहुत है। एक बड़े कैनवस पर मैंने एक विद्रोही के पूरे जीवन का चित्र खींचने की कोशिश की थी और जहाँ तक चित्र का संबंध था, वह काफ़ी सच्चा उतरा था, पर जिस भूमि पर वह खींचा गया था- भारतीय समाज और संस्कृति – उसका ज्ञान मेरा अधूरा ही था, इसलिए चित्र ठीक नहीं था।अब नए अनुभव के आधार पर परिवर्तन और परिष्कार करके मैं उसे फिर हिंदी में लिखना चाहता था। उपन्यास को मैं जीवन-दर्शन मानता हूँ और इस दृष्टि से, गंभीर चीज़ लिखने के लिए एकांत ज़रूरी था। तभी मैं “परिचित सभ्य’ लोगों की बस्ती से अलग मनाली में आ जमा था।
देवों का समकक्षी, सृष्टा हो गया
मनाली अपनी स्थिति के कारण ही नहीं, सौंदर्यके कारण भी देवताओं के अंचल का सुनहला ऊपरी छोर है। दृष्टि-क्षेत्र में सीखचे-ही-सींखचे देखने की आदी मेरी आँखें इस विराट सौंदर्य को पीती जाती थीं और मानो अपने पर विश्वास नहीं कर पाती थीं। सींखचों का संस्कार इतना गहरा पड़ गया था कि मैं बाहर बिखगी हुई सौंदर्य-राशि को देखकर भी भीतर में अपने पुराने बंदी-जीवन की स्मृतियाँ निकालता जाता था था- जैसे शाही पोशाक में लिपटकर भी भिखमंगा अपनी फटी हुई और थिगरों से भूषित गुदड़ी को नहीं भूलता। लेकिन मनाली ने मानो उन स्मृतियों पर अपनी छाप डाल दी –वे कटु स्मृतियां अपने आप में कट स्मृतियाँ मानो सुंदरता के एक ढाँचे में ढलकर निकलने लगीं। अगले दिन प्रातःकाल ही देवताओं के अंचल में बैठे हुए एक क्षुद्र मानव ने पाया कि वह भी देवों का समकक्षी हो गया है, सृष्टा हो गया है, वह लिखने लगा…।
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Jyoti maurya

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