सृजन की दुनिया : ‘रमेश चंद्र ‘मस्ताना’ को घर से ही मिले लिखने के संस्कार, हिन्दी और हिमाचली पहाड़ी में खूब लिख रहे धारदार

सृजन की दुनिया : ‘रमेश चंद्र ‘मस्ताना’ को घर से ही मिले लिखने के संस्कार, हिन्दी और हिमाचली पहाड़ी में खूब लिख रहे धारदार
अशोक दर्द/ शाहपुर
कांगड़ा जिला के शाहपुर उपमंडल के ऐतिहासिक तथ्यों और अनेक सांस्कृतिक विशेषताओं वाले नेरटी गांव से संबंध रखने वाले रमेश चंद्र ‘मस्ताना’ को कविता, कहानी, आलेख, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, सर्वेक्षण कार्य, समालोचना और कवर-स्टोरी रिपोर्ट करने में महारत हासिल है। साहित्य सृजन के आधी सदी के सफर में विभिन्न विधाओं में उनकी दर्जन भर पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। विभिन्न मंचों पर उन्होंने अनेक शोधपूर्ण आलेख प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने कई पुस्तकों का सम्पादन भी किया है।
उन्होंने हिमाचल प्रदेश भाषा विभाग के सौजन्य से नेरटी और गढ़जमूला के मन्दिरों का सर्वेक्षण किया है। नई दिल्ली की रमेश चंद्र ‘मस्ताना’ ने प्रिया संस्था के सौजन्य से पंचायती राज पर एक हिन्दी-पहाड़ी पुस्तक ‘राज पंचायती दा’ और शिव-पूजन : नुआला से संबंधित कार्यशालाएं करवा कर इस पूजन-परम्परा पर एक पुस्तक लिखी है। हिमाचली-पहाड़ी में दोहा-शैली में रचित उनकी पुस्तक ‘झांझर छणकै’ को प्रदेश में दोहा-शैली की प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।
पुस्तक में सहेजी पांगी की लोक संस्कृति
रमेश चंद्र ‘मस्ताना’ ने वर्ष 2016 में स्वर्गीय साहित्यकार ओंकार ‘फलक’ रचित हिन्दी एवं पहाड़ी की कविताओं को अरबी-फ़ारसी लिपि से देवनागरी लिपि में लिप्यान्तरित व सम्पादित कर विरेन्द्र शर्मा वीर के सहयोग से ‘काल़ियां धारां सूरज उग्गै’ पुस्तक प्रकाशित करवाई है। लोक-विश्वासों पर आधारित उनकी पुस्तक ‘आस्था के दीप : लोक विश्वास’ प्रकाशित हुई है। वर्ष 2011 में लोक-सांस्कृतिक विषयों पर आधारित उनकी पुस्तक ‘लोकमानस के दायरे’ प्रकाशित हुई।
वर्ष 2012 के बाद प्रभात शर्मा के साथ पांगी-घाटी की यात्राएं कर उस घाटी की संस्कृति को 2016 में प्रकाशित पुस्तक ‘पांगी-घाटी की पगडंडियाँ एवं परछाइयां’ में संरक्षित किया। वर्ष 2019 में हिमाचली-पहाड़ी कविता संकलन ‘पक्खरु बोलै’ प्रकाशित हुआ। साल 2020 में हिन्दी कविता संकलन ‘काग़ज़ के फूलों में’ तथा एक आलेख संग्रह ‘मिट्टिया दी पकड़’ हिमाचली-पहाड़ी में प्रकाशित करवाया। वर्ष 2023 में हिमाचली-पहाड़ी में उनका काव्य संकलन ‘मेरया मितरा’ प्रकाशित हुआ है।
कई स्कूलों में की पढ़ाई
रमेश चंद्र ‘मस्ताना’ का जन्म नेरटी गांव के लच्छमन दास ‘मस्ताना’ और फूलां देवी दंपति के घर हुआ। उनके दादा दादा ज्ञानचंद अपने समय में लाहौर के किसी मदरसे में उर्दू—ध्यापक ‘मुदर्रिस’ रहे थे। बाद में उनके पिता भी आजादी से पहले के अपने क्षेत्र के पहले अध्यापक रहे। रमेश चंद्र मस्ताना ने भी अध्यापन को चुना और अब परिवार की चौथी पीढ़ी के दोनों बेटे भी अध्यापन के क्षेत्र में सेवाएं दे रहे हैं।
रमेश चंद्र की प्रारम्भिक शिक्षा धारकंडी क्षेत्र के दरीणी स्कूल और फिर रेहलू स्कूल में हुई। जब वे चौथी में थे, उसी वर्ष सरकार ने ‘को-एजूकेशन सिस्टम’ सिस्टम शुरू किया और लड़के-लड़कियां एक साथ पढ़ने लगे। पांचवी कक्षा में कन्या मिडल स्कूल नेरटी ने प्रवेश लिया और आठवीं कक्षा पढ़ाई पूरी की। नौवीं में हायर सेकंडरी स्कूल रैत और फिर रेहलू एडमिशन लिया और 1971 में दसवीं पास की।
गोल्ड मैडल के साथ हिन्दी में एमए
दसवीं के बाद पिता ने रमेश चंद्र को उनके बड़े भाई के पास देहरादून भेज दिया। उन्होंने गुरु रामराय इन्टर कालेज, नेहरू ग्राम से इन्टरमीडिएट की, टाइप सीखी और हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से प्रभाकर की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। इसके साथ की ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई भी पूरी की। उन्होंने आईटीआई शाहपुर से आशुलिपि-हिन्दी के प्रशिक्षण के दौरान टॉप किया।
नेरटी गांव से ही संबंध रखने वाले साहित्यकार एवं शिक्षाविद्ध तथा उस समय धर्मशाला कॉलेज में प्रोफेसर डॉ. गौतम शर्मा ‘व्यथित’ की सलाह पर एमए हिन्दी में दाखिला लिया। साल 1980 में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में प्रथम रहते हुए स्वर्ण पदक के साथ पास की। धर्मशाला महाविद्यालय के पहले स्वर्ण पदक विजेता होने के चलते उन्हें कॉलेज प्रशासन ने ‘रोल ऑफ ऑनर’ से सम्मानित किया गया।
घर से मिले लिखने के संस्कार
रमेश चंद्र के पिता हिन्दी, पहाड़ी और उर्दू में कविताएं, नज्में और लेख लिखते थे। उनकी रचनाएं उस समय जालन्धर और होशियारपुर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों और रसालों में प्रकाशित होती थीं। विभिन्न मंचों पर उनकी सम-सामयिक कविताएं व नज्में खूब पसन्द की जाती थीं। पारिवारिक संस्कारों से मिली प्रेरणा के चलते इन्टरमीडिएट की पढ़ाई करते ही उनकी साहित्य लेखन के प्रति रुचि बढ़ती गई।
डॉ गौतम शर्मा ‘व्यथित’ ने नेरटी गांव में कांगड़ा लोक साहित्य परिषद का गठन किया, जिसने पूरे जिला के कवियों, लेखकों और कलाकारों में नव-जीवन का संचार हुआ। युवा रमेश चंद्र ने कांगड़ा लोक साहित्य परिषद के मंच सजाए, दरियां बिछाईं और वरिष्ठ कवियों- गज़लकारों से कविता लिखना और मंचन करना शुरू किया। 1973-74 के आसपास ‘भाल़ां शीर्षक से जालन्धर से छपने वाले ‘वीर प्रताप’ में पहली कविता प्रकाशित हुई।
हिमाचली पहाड़ी के साथ डोगरी में सृजन
रमेश चंद्र मस्ताना हिन्दी और हिमाचली-पहाड़ी में सृजन करने लगे। हिमाचल प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति अकादमी और भाषा विभाग के कार्यक्रमों के साथ ही जम्मू एवं कश्मीर अकादमी के कार्यक्रमों में भाग लेने लगे। साहित्यिक यात्रा के शुरू में वरिष्ठ साहित्यकारों से बहुत कुछ सीखने को मिला। डा. गौतम ‘व्यथित’, डॉ पीयूष गुलेरी, गज़लगो सागर पालमपुरी और पहाड़ी गज़ल में प्रेम भारद्वाज का अन्दाज़-ए-बयां उनके लिए बहुत प्रभावकारी और प्रेरक रहा है।
जम्मू में रामनाथ शास्त्री और डोगरी संस्था के विद्वान लेखकों व साहित्यकारों से भी बहुत कुछ सीखने को मिला। मंच-संचालन सारे गुण डॉ प्रेम भारद्वाज से ही सीखे हैं। सेवानिवृत होने के बाद साहित्य-साधना में जुटे रमेश चंद्र मस्ताना ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान स्थापित की है। ‘मस्ताना’ जहां मंचीय गतिविधियों से जन-जन में लोकप्रिय हैं, वही अध्यापकों-प्राध्यापकों तथा छात्रों में शिक्षा, भाषा और कैरियर-काउंन्सिलिंग को लेकर चर्चित हैं।
सृजन के लिए कई सम्मान
रमेश चंद्र मस्ताना को साहित्य सृजन के लिए 1999 में समाज सेवा परिषद, रैत द्वारा पहाड़ी साहित्य सम्मान, 2001 में जैमिनी अकादमी पानीपत द्वारा आचार्य मानद सम्मान, 2008 में गुरुकुल बहुमुखी शिक्षा संस्था कुल्लू द्वारा गुरुकुल साहित्य सम्मान, 2011में आथर्ज गिल्ड आफ हिमाचल द्वारा साहित्य विभूति सम्मान और 2012 में भुट्टिको कुल्लू द्वारा लालचंद प्रार्थी कला संस्कृति राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है।
साल 2012 में उन्हें रोटरी क्लब शाहपुर द्वारा सर्वश्रेष्ठ शिक्षक पुरस्कार, 2013 में सिरमौर कला मंच द्वारा डॉ वाई. एस. परमार राष्ट्रीय सम्मान, 2014 में कायाकल्प फांउडेशन नोएडा द्वारा कायाकल्प साहित्य-भूषण सम्मान तथा साल 2020 में आवाज़ ए शाहपुर / आवाज़ ए हिमाचल के द्वारा शाहपुर गौरव साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
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