चंबा में दुनिया का अनूठा गायन, तेजी से हो रहा ‘मुसाधा’ का पलायन

चंबा में दुनिया का अनूठा गायन, तेजी से हो रहा ‘मुसाधा’ का पलायन
चंबा में दुनिया का अनूठा गायन, तेजी से हो रहा ‘मुसाधा’ का पलायन
चंचल सरोलवी, चंबा
मुसाधा गायक संभवत: विश्व का ऐसा पहला कलाकार होता है, जो एक साथ दो वाद्य यंत्रों को बजाते हुए गाता है। दुनिया की अपनी तरह का यह लोक गायन हिमाचल प्रदेश के चंबा जिला की सांस्कृतिक विरासत का अनमोल रत्न है। दुखद यह है कि कभी चंबा के लोक जीवन से जुड़ी रही लोक संस्कृति की इस अमूल्य धरोहर के वजूद पर संकट मंडराने लगा है।
मुसाधा गायन पूर्ण रुप से धार्मिक परंपराओं से जुड़ा गायन है। इस गायन के लोप के साथ जनपद की कई पुरातन धार्मिक परम्पराएं भी लोप हो रही हैं। कभी आयोजक मुसाधा लोक कलाकारों के पांव धुला कर सम्मान करते थे, आज आलम यह है कि उन्हें पेट की खातिर चंबा जिला के बस स्टैंडों, मेलों और डलहोजी और खजियार जैसे पर्यटक स्थलों मुसाधा गायन करते देखा जा सकता है। संरक्षण के अभाव में आने वाली पीढ़ी शायद ही इस इस लोकगायन का रसपान कर सके|
‘घुराई’ और ‘घुरैण का हुनर
मुसाधा गायक पारंपरिक लोकगीत गाते हुए एक हाथ से खंजरी और दूसरे हाथ से रुवाना ( तार बाध्य) बजाता है। मुसाधा लोक गायन में केवल दो कलाकार ही होते हैं। पुरुष कलाकार को ‘घुराई’ और स्त्री कलाकार को ‘घुरैण’ कहते हैं।
घुराई एक हाथ से खंजरी पर ताल देते हुए, तथा दूसरे हाथ से रुबाना ( तार वाध्ध) से संगीत देखते हुए गाता है। घुरैण दोनों हाथों से कंसी बजाती हुई गाने मे उसका साथ देती है।
धार्मिक प्रसंगों वाली लोकगाथाओं का गायन
लोक गायन में धार्मिक प्रसंगों वाली कई लोग गाथाएं गाई जाती हैं, जैसे- रामायण, महाभारत, शिव पुराण इत्यादि। इस लोक गायन की विशेष परंपरा यह है कि जब कोई भी धार्मिक प्रसंग वाली गाथा की चार पंक्तियां गाई जाती हैं, तो उसका अनुवाद अपनी ही स्थानीय भाषा में कथा के रूप में किया जाता है।
मुसाधा का आयोजन भगवान शिव के निमित्त नई फसल होने पर और मांगी गई मुराद मन्नत पूरी होने पर विशेष रूप मैं किया जाता है। घर-घर जाकर भी मुसाधा गायक गायन कर नई फसल बधाई के रुप में भी प्राप्त करता है।
गायन करने वालों का सम्मान
मुसाधा गायन का आयोजन रात को खान पान से निवृत होकर शुरू होता है। जिस स्थान पर मुसाधा का आयोजन किया जाता है, उस स्थान को गाय के गोबर लीपा जाता है। लोक कलाकारों के हाथ पांव धुला कर, आसन बिछाकर बैठाया जाता है।
आयोजक धूप दीप जलाकर पांच माणी गेहूं या मक्की ( 2 किलो सो ग्राम का बना हुआ लकड़ी का डिब्बा जिसे माणी कहते है) भरकर दीप के साथ रखते हैं। इसके साथ ढाई मीटर कपड़ा, लगभग 4 शेर आटा, देसी पट्टू( चादर) तथा कैलाश पर्वत दर्शाने के लिए 84 रूई की लंबी मालाओं को गुथकर छत से लटकाते हैं। कोई- कोई भेड बकरी भी भेट मैं देते हैं।
पांच माणी अन्न को बरसोद और 10 माणी को दस्यूंद कहते हैं! आयोजक अपनी इच्छा अनुसार बरसोद या दस्यूंद भगवान के निमित्त करता है।
गायन के साथ अनुवाद
मुसाधा लोक गायक सर्वप्रथम अपने साजो को धुप दिखाकर तीन भजन गाता है, फिर उपस्थित जन समूह के कहे अनुसार धार्मिक गाथा गाता है। गाथा की चार पंक्तियां गाने उपरांत उसका अनुवाद कथा के रूप में करता जाता है।
एक व्यक्ति कथा का कुछ अंश सुनने उपरांत ‘जी मेरे महाराज’ कहता रहता है, जिसे सकवाई कहते हैं। उपस्थित जनसमूह भाव विभोर होकर सुनता है और कई नाचने भी लगते हैं। आयोजन सुबह चार बजे तक चलता रहता है। माला को उसी छत से बांधकर लटका दिया जाता है, अगला आयोजन होने तक। सुबह आयोजक मुसाधा गायकों को अपनी श्रद्धा अनुसार धनराशि भेंट करता है।
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Jyoti maurya

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